बैस

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

बैस ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ वयस्]

१. आयु । उम्र । उ॰—(क) औ नयन गयल मोर कजल देत । अरु बैस गयल पर पुरुष लेत । —कबीर (शब्द॰) । (ख) बूझति है रुक्मिनी पिय ! इनमें को वृषभानु किसोरी ? नेक हमैं दिखरावो अपने बालापन की जोरी । परम चतुर जिन कीने मोहन सुबस बैस ही थोरी । बेरे ते जिहि यहैं पढ़ायो बुधि बल कल बिधि चोरी ।—सूर (शब्द॰) । (ग) नित प्रति एकत हीं रहत बैस बरन मन एक । चहियत जुगल किशोर लखि लोचन जुगल अनेक ।—बिहारी र॰, दो॰ २३८ ।

२. यौवन । जवानी । मुहा॰—बैस चढ़ना = युवावस्था प्राप्त होना । जवानी आना । उ॰—बैस चढ़े घर ही रहु बैठि अटानि चढ़े बदनाम चढै़गा ।—रसिनिधि (शब्द॰) ।

बैस ^२ संज्ञा पुं॰ [?] (किसी मूल पुरुष के नाम पर)क्षत्रियों की एक प्रसिद्ध शाखा जो कन्नोज से लेकर अंतर्वेद तक बसी पाई जाती है । विशेष—यह शाखा पहले थानेश्वर के पास बसती थी पीछे विक्रम संवत् ६६३ के लगभग इस शाखा के प्रसिद्ध सम्राट् हर्षवर्धन ने पूरब के प्रदेशों को जीता और कन्नोज में अपनी राजधानी बनाई ।

बैस † ^३ संज्ञा पुं॰ [सं॰ वैश्य, प्रा॰ बैस] दे॰ 'वैश्य' ।